"अथर्ववेद": अवतरणों में अंतर
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अथर्ववेद संहिता को अनुप्रेषित |
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'''अथर्ववेद''' चारों [[वेद|वेदों]] में से अंतिम है। इस वेद का प्राचीन जो हस्तलिपियों के आरंभ में भी लिखा मिला है। इस शब्द में अथर्वन् और अंगिरस दो प्राचीन ऋषिकुलों के नाम समाविष्ट हैं। इससे कुछ पंडितों का मत है कि इनमें से पहला शब्द अथर्वन् पवित्र दैवी मंत्रों से संबंध रखता है और दूसरा टोना-टोटका आदि मोहन मंत्रों से। बहुत दिनों तक वेदों के संबंध में केवल ''त्रयी'' शब्द का उपयोग होता रहा और चारो वेदों की एक साथ गणना बहुत पीछे हुई, जिससे विद्वानों का अनुमान है कि अथर्ववेद को अन्य वेदों की अपेक्षा कम पवित्र माना गया। धर्मसूत्रों और [[स्मृति|स्मृतियों]] में स्पष्टतः उसका उल्लेख अनादर से किया गया है। आपस्तंब धर्मसूत्र और विष्णु स्मृति दोनों ही इसकी उपेक्षा करती है और विष्णु स्मृति में तो अथर्ववेद के मारक मंत्रों के प्रयोक्ताओं को सात हत्यारों में गिना गया है। |
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(मेरी समझ में यह नही आता की उपरोक्त और निम्न लिखी बातो का क्या प्रमाण है की अर्थवेद में एसा लिखा है क्या लेखक ने कोई इस पर अनुसन्धान किया है या वैसे ही अपने मन माफिक लिख दिया है. जैसा की मेरा अनुसन्धान तो यह कहता है की यह बिल्कुल असत्य है जो भी यहाँ लिखा है. मैं एक जल्द ही अपने ब्लॉग satyagi.blogspot.com पर इसका प्रमाण सहित खंडन करूंगा की ऐसी कोई भी बकवास वेदों में नही लिखी है. कृपया मेरी लेखक से विनती है की पहले किसी विषय का अनुसन्धान कीजिये तब उसको प्रमाण सहित यहाँ लिखिए.) |
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अनुमानत: अथर्ववेद की यह अस्पृहणीय स्थान उनके अभिचारी विषयों के कारण ही मिला। यह सत्य है कि उस वेद का एक बड़ा भाग ऋग्वेद से जैसा का तैसा ले लिया गया है परंतु उसके उस भाग में, जो केवल उसका निजी है, मारण, पुरश्चरण, मोहन, उच्चाटन, जादू, झाड़ फूँक, भूत-पिशाच, दानव-रोग-विजय संबंधी मंत्र अनेक है। ऐसा नहीं कि उसमें ऋग्वैदिक देवताओं की स्तुति में सूक्त या मंत्र न कहे गए हों, पर निःसंदेह जोर उसके विषयसंकलन का विशेषतः इसी प्रकार के मंत्रों पर है जिनकी साधुता धर्मसूत्रों तथा स्मृतियों ने अमान्य की है। संभवतः इसी कारण अथर्ववेद की गणना वेदों में दीर्घ काल तक नहीं हो सकी थी। परंतु इसमें संदेह नहीं कि उस दीर्घकाल का अंत भी शतपथ ब्राह्मण के निर्माण के पहले ही हो गया था क्योंकि उस ब्राह्मण के अंतिम खंडों तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण और छांदोग्य उपनिषद् में उसका उल्लेख हुआ है। वैसे अथर्ववेदसंहिता का निर्माण महाभारत की घटना के बाद ही हुआ होगा। यह न केवल इससे ही प्रमाणित है कि उसके प्रधान संपादक भी, और तीनों वेदों की ही भाँति, वेदव्यास ही हैं वरन् इस कारण भी कि उसमें परीक्षित, जनमेजय, कृष्ण आदि महाभारत कालीन व्यक्तियों का उल्लेख हुआ है। |
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[[कड़ी शीर्षक]]==अथर्ववेद का वर्ण्य-विषय== |
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अथर्ववेद सावधि संस्कृति, धर्म, विश्वास, रोग, औषधि, उपचार आदि का विश्वकोश है। विषयों की अगणित विविधता उसकी सी अन्य किसी वेद में नहीं है। यह सही है कि उसमें जादू, झाड़-फूँक के मंत्र शत्र, दैत्य, रोग आदि के निवारण के लिए प्रभूत मात्रा में संकलित हैं, परंतु इनके अतिरिक्त उसका प्रचुर विस्तार उन सारे विषयों से संबंधित है जिन्हें आज विज्ञान का पद मिला हुआ है। ज्योतिष, गणित और फलित, रोगनिदान और चिकित्सा, स्वास्थ्य विज्ञान, यात्रानिदान, राज्याभिषेक आदि पर तो वह पहला प्रामाणिक ग्रंथ है, न केवल भारत का बल्कि संसार का। शत्रुदमन और राज्याभिषेक पर उसमें जो मंत्र हैं वे पिछले काल तक हिंदू राजाओं के राजतिलक के समय व्यवहृत होते रहे हैं। उसी वेद में वह प्रसिद्ध पृथिवीसूक्त भी है जिसमें स्वदेश के प्रति मानव ने पहली बार अपने उद्गार व्यक्त किए हैं। |
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अथर्ववेद संहिता बीस कांडों में संकलित है। उसमें 730 सूक्त और लगभग 6,000 मंत्र है। इन मंत्रों में से प्रायः 1,200 ऋग्वेद से जैसे के तैसे, अथवा कुछ परिवर्तन के साथ, ले लिए गए हैं। स्वाभाविक ही ऋग्वेद से लिए गए मंत्रों में से अनेक देवस्तुतियों, दानस्तुतियों, कर्मकांड आदि से संबंध रखते हैं। परंतु, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, अथर्ववेद का प्रयास कर्मकांड आदि के व्यवहार में इतना नहीं जितना जीवन के उचित अनुचित, ऊँच-नीच, जनविश्वासों और प्रवृत्तियों को प्रकट करने में है। इस दृष्टि से इतिहासकार के लिए संभवतः वह अन्य तीनों वेदों से कहीं अधिक महत्व का है। पुराण, इतिहास, गाथा आदि का पहले-पहले उल्लेख उसी में हुआ है और ऐसी अनेक परंपराओं की ओर भी वह वेद संकेत करता है जो न केवल ऋग्वेद के विषयकाल से प्राचीनतर है वरन् वस्तुतः अति प्राचीन है। |
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कुछ पंडितों का मत है कि ऋग्वेद की विषय परिधि से बचे हुए सारे मंत्र अथर्ववेद में एकत्र कर लिए गए; कुछ का कहना है कि विषयों के वितरण के संबंध में दो दृष्टियों का उपयोग किया गया है। एक के अनुसार ऋग्वेद आदि तीनों वेदों में कर्मकांड आदि संबंधी उच्च स्तरीय एकत्र कर लिए गए और बचे हुए मारण-मोहन-उच्चाटन आदि पार्थिव तथा नीच स्तरीय मंत्र, दूसरी दृष्टि से, अथर्ववेद में संकलित हुए। |
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(मेरी समझ में यह नही आता की उपरोक्त और निम्न लिखी बातो का क्या प्रमाण है की अथर्ववेद में ऐसा लिखा है क्या लेखक ने कोई इस पर अनुसन्धान किया है या वैसे ही अपने मन माफिक लिख दिया है. जैसा की मेरा अनुसन्धान तो यह कहता है की यह बिल्कुल असत्य है जो भी यहाँ लिखा है. मैं एक जल्द ही अपने ब्लॉग satyagi.blogspot.com पर इसका प्रमाण सहित खंडन करूंगा की ऐसी कोई भी बकवास वेदों में नही लिखी है. कृपया मेरी लेखक से विनती है की पहले किसी विषय का अनुसन्धान कीजिये तब उसको प्रमाण सहित यहाँ लिखिए.) |
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shri man lekhk mahody aap se vinamra anurodh hai ki is traha ki koi bhi bat kisi bhi dharm granth ke bare main likh ne se pahle aap ko pura anusandhan karna chahiye vidik mantra or richao ka vartman yug main kya mahatva hai yah shodh ka vishya hai |
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==अथर्ववेद का समय== |
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यदि शतपथ ब्राह्मण के प्रणयन का काल आठवीं सदी ई. पू. मानें तो प्रमाणतः उसमें उल्लिखित होने के कारण अथर्ववेद का संहिता-निर्माण काल उससे पहले हुआ। आठवीं सदी ई. पू. उसकी निचली सीमा हुई और ऊपरी सीमा उससे सौ वर्ष पूर्व के भीतर ही इस कारण रखनी होगी कि उसमें महाभारत के व्यक्तियों का उल्लेख हुआ है, और कि उसके संहिताकार वेदव्यास हैं, जो स्वयं महाभारत काल के पूर्वतर पुरुषों में से हैं। यह तो हुआ अथर्ववेद के संहिताकाल का अनुमान, पर उसके मंत्रों का निर्माणकाल तो कुछ अंश में, एक वर्ग के विद्वानों के अनुसार, ऋग्वेद के मंत्रों से भी पहले रखना होगा। वैसे ऋग्वेद के जो मंत्र अथर्ववेद में लिए गए हैं उनका निर्माणकाल तो उस चौथे वेद के उस अंश को ऋग्वेद के समानांतर के समवर्ती ही कर देता है। फिर यह भी निश्चयपूर्वक कह सकना कठिन है कि अथर्ववेद के वे मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए। कुछ अजब नहीं कि दोनों के उद्गम वे समान मंत्र रहे हों जो सर्वत्र ऋषिकुलां में प्रचलित थे और जिनमें से कुछ में स्थान-उच्चारण-भेद के कारण संकलन के समय पाठभेद भी हो गए। इन पाठभेदों का प्रमाण स्वयं अथर्ववेद है। |
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==शाखाएँ== |
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अथर्ववेद की दो शाखाएँ आज उपलब्ध हैं। एक का नाम पप्पलाद शाखा है, दूसरी का शौनक। |
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विभिन्न उल्लेखों से ज्ञात होता है कि अथर्ववेद की नौ शाखाएँ थीं - पैप्पला, दाँता, प्रदांता, स्नाता, स्नीता, ब्रह्मदावला, शौनकी, देविदर्शती तथा चरण विद्या। कहीं-कहीं इन नौ शाखाओं के नाम इस प्रकार हैं- पिप्पलादा, शौनकीया, दामादा, तोतायना, जाचला, ब्रह्मपलाशा, कौनखिना, देवदर्शिना और चरण विद्या। उपलब्ध शौनक शाखा में 20 कांड, 111 अनुवाक, 731 सूक्त और 4,793 मंत्र हैं। पिप्पलाद या पैप्पलाद शाखा की संहिता प्रोफेसर बूलर को काश्मीर में भोजपत्र पर लिखी मिली थी पर वह अभी तक अप्रकाशित है। इसका उपवेद धनुर्वेद है। इसके प्रधान उपनिषद् प्रश्न, मुंडक और मांडूक्य हैं। इसका गोपथ ब्राह्मण आजकल प्राप्त है। अनेक विद्वानों ने इस वेद के सौभाग्यखंड को तंत्र के मूल स्रोत के रूप में स्वीकार किया है। |
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[[श्रेणी:धर्मग्रन्थ]] |
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[[श्रेणी:हिन्दू धर्म]] |
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[[श्रेणी:वेद]] |
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[[de:Atharvaveda]] |
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[[en:Atharvaveda]] |
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[[es:Átharva Vedá]] |
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[[fr:Atharva-Véda]] |
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[[id:Atharwaweda]] |
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[[ja:アタルヴァ・ヴェーダ]] |
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[[ka:ათარვავედა]] |
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[[kn:ಅಥರ್ವವೇದ]] |
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[[la:Atharvaveda]] |
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[[ml:അഥർവ്വവേദം]] |
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[[pl:Atharwaweda]] |
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[[pt:Atarvaveda]] |
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[[ru:Атхарва-веда]] |
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[[sa:अथर्ववेद]] |
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[[simple:Atharva Veda]] |
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[[sk:Atharvavéd]] |
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[[sv:Atharvaveda]] |
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[[te:అధర్వణ వేదం]] |
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[[tr:Atharvaveda]] |
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[[zh:阿闼婆吠陀]] |
21:29, 3 मई 2010 के समय का अवतरण
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